प्रत्येक जीवधारी जिनमें अन्योन्याश्रिता अत्यावश्यक प्रवृत्ति है, की प्रारम्भ से अब तक सबसे बड़ी समस्या भाव सम्प्रेषण के माध्यम की रही है। इस हेतु प्रकृतितः उपलब्ध साधनो में सबसे महत्वपूर्ण ‘संवाद’ है जिसकी आवश्यक शर्त ‘भाषा’ है किन्तु, यद्यपि हम समस्त जीवधारियों की भाषा को तो नहीं समझ सकते और आवश्यकता भी नहीं है तथापि स्वजातियों की भाषा को समझना और अपनी बात समझाना जो कि परम आवश्यकता है, भाषायी विभिन्नता के कारण अत्यन्त दुष्कर है।
मानव समाज जो कम से कम इतनी बौद्धिक क्षमता तो रखता ही है कि संवाद सम्प्रेषण हेतु एक भाषा ईज़ाद कर सके अथवा दूसरे मानव समाज द्वारा ईज़ाद की हुई अन्य भाषा को समझ सके, परिष्कृत कर सके, उसका प्रचार-प्रसार कर सके और उसे सार्वभौमिकता के स्तर तक पहुँचा सके।
सिन्धु नदी तट का परिक्षेत्र आर्यावर्त (उत्तर-भारत) के निवासियों द्वारा अपनायी गई लोक भाषा हिन्दी (सिन्धी), जो कि वर्तमान भारत की राष्ट्र भाषा है और जिसे यदि माने तो आज के परिप्रेक्ष्य में लिपि (देवनागरी) के आधार पर दुनिया की सबसे वैज्ञानिक और धनी भाषा कह सकते हैं, के विकास-क्रम के उत्स (आदिकाल) का एक विहंगम अवलोकन इस आलेख का प्रतिपाद्य है।
किसी भी भाषा के स्वरूप एवं स्तर की पहचान उस भाषा के उपलब्ध साहित्य से की जाती है। हिन्दी भाषा का यात्राक्रम (कालक्रमानुसार) जो कि साहित्य को मानक मान कर निश्चित किया गया, का प्रवृत्यात्मक विवरण दिए वगैर इस भाषा के वर्तमान स्वरूप का मूल्यांकन सम्भव नहीं है और किसी भी भाषा के समस्त साहित्य, जो कि अस्त-व्यस्त हों, का सम्यक् अध्ययन करके उस भाषा को परिष्कृत करना और धनी बनाना अत्यन्त ही समस्यापूर्ण, दुष्कर कृत्य है। ऐसा ही हिन्दी भाषा पर भी लागू होता है।
किसी भी भाषा के स्वरूप एवं स्तर की पहचान उस भाषा के उपलब्ध साहित्य से की जाती है। हिन्दी भाषा का यात्राक्रम (कालक्रमानुसार) जो कि साहित्य को मानक मान कर निश्चित किया गया, का प्रवृत्यात्मक विवरण दिए वगैर इस भाषा के वर्तमान स्वरूप का मूल्यांकन सम्भव नहीं है और किसी भी भाषा के समस्त साहित्य, जो कि अस्त-व्यस्त हों, का सम्यक् अध्ययन करके उस भाषा को परिष्कृत करना और धनी बनाना अत्यन्त ही समस्यापूर्ण, दुष्कर कृत्य है। ऐसा ही हिन्दी भाषा पर भी लागू होता है।
साहित्यिक सम्पदाओं के ऐतिहासिक स्वरूप के अध्ययन और लेखन के प्रमुख दो स्रोत होते हैं- अन्तः साक्ष्य और बहिर्साक्ष्य। अन्तः साक्ष्य के अन्तर्गत कवि की मूल रचना और रचना संग्रह के आधार पर साहित्य का अध्ययन किया जाता है जबकि बहिर्साक्ष्य के अन्तर्गत सम्पादकों और अन्य लेखकों तथा कवियों द्वारा किसी ग्रन्थ अथवा लेखन विशेष पर सम्पादित एवं लिखित टिप्पणियों और ग्रन्थों को भी आधार बनाया जाता है। गार्सा द तासी से लेकर आज तक हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की एक अबाध परम्परा देखने को मिलती है।
हिन्दी साहित्य के यद्यपि अधिकांश इतिहास-ग्रन्थ लिखे जा चुके हैं किन्तु आज के अनुसंधित्सु, जिज्ञासु फिर भी असन्तुष्ट हैं। हिन्दी भाषा का यात्रा वृत्तान्त लिखते समय प्रस्तुत प्रमुख समस्याओं में सर्वप्रथम काल-विभाजन, प्रारम्भिक तिथि-निर्धारण और कालक्रमानुसार प्रवृत्तियों के आधार पर विशेष समय-खण्ड का यथोचित नामकरण की समस्या से पाला पड़ता है। तदोपरान्त कवि और लेखकों को किस आधार पर किस काल-खण्ड का माना जाय यह भी एक प्रश्न मुँह बाये खड़ा रहता है। दूसरी समस्याओं में अन्य भाषा-साहित्य के समावेश का सवाल, वैज्ञानिक मूल्यांकन की समस्या, कवि-जीवन-निर्धारण विषयक् समस्या, प्रक्षिप्त अंशों से सम्बन्धित समस्या, निष्कर्षों की संदिग्धता, हिन्दी और उर्दू को एक शैली का मानना तथा क्षेत्रीय भाषाओं के ग्रन्थों को सम्मिलित करने की समस्या है जो कम महत्त्व की नहीं हैं। हिन्दी का यात्रा-वृत्तान्त लिखने में उपस्थित समस्याओं के समाधान के तरीकों की एक संक्षिप्त सूची स्वमत्यानुसार प्रस्तुत करने की धृष्टता अवश्य करूँगी। इन उपायों में-
- हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन सामाजिक और साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर किया जाये। ऐसा करने से सम्भवतः उसके नामकरण एवं सम्वत् से सम्बन्धित समस्याओं से छुटकारा मिल जायेगा।
- साहित्यिक प्रवृत्तियों, आन्दोलनों, प्रमुख कवियों, लेखकों एवं कृतियों का समावेश करते समय व्यापक एवं नवीन दृष्टिकोण अपनाते हुए उन पर यथोचित विचार किया जाय।
- साहित्य के उदय एवं विकास, काल-विभाजन एवं कवियों के जीवन-वृत्तों का वर्णन करते समय सर्वथा ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाय।
- साहित्य के इतिहास का लेखन करते समय साहित्य के सभी पक्षों अर्थात् उसकी प्रमाणिकता, भाषा, तिथि, नामकरण, स्थान, आदि पर समुचित एवं सन्तुलित विचार करने से अधिकाधिक समस्याएं स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी।
- साहित्य-इतिहास लेखन से सम्बन्धित पद्धति में भाषा-शैली का स्पष्ट, सरल, सुबोध एवं सुरुचि पूर्ण प्रयोग हो तथा ग्रन्थ को प्रमाणिक एवं अप्रमाणिक सिद्ध करने के लिए स्पष्ट एवं पर्याप्त तार्किक उद्धरण हों।
- प्रत्येक लेखक एवं कवि की कृतियों का सही रूप से संकलन तथा विवेचन विकास-क्रम के अनुसार किया जाय तो समस्याओं पर रोक लगेगी।
इस यात्रा के अनेक पड़ावों पर जो भी कठिनाईयां दृष्टिगोचर होती हैं उपरोक्त बिन्दुओं पर सम्यक् विचार करके यदि उन्हें अमल में लाया जाये तो सन्देह नहीं कि वर्तमान ही नहीं भावी पीढ़ी को भी इस कृत्य में अवश्यमेव आसानी होगी।
हिन्दी की यात्रा जो कि उसके साहित्य के इतिहास के रूप में दर्शनीय है, के वर्णन का प्रयास विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न पद्धतियों के आधार पर किया है जिसको संज्ञान में लिए बिना यह विवरण अधूरा सा रहेगा। हिन्दी साहित्य के इतिहास की सर्वप्रथम सशक्त एवं सुस्पष्ट योजना पं0 रामचन्द्र शुक्ल के ‘हिन्दी शब्द सागर की भूमिका’ में प्रस्तावित हुई थी, जो सन् 1985 में भूमिका के रूप में तथा सन् 1986 में स्वतन्त्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुई। आपने हिन्दी साहित्य के इतिहास को प्रवृत्तियों के आधार पर चार कालों- वीरगाथाकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल में विभाजित करके उसका नामकरण और सीमांकन भी किया। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कई विदेशी और भारतीय विद्वानों ने भी हिन्दी साहित्य के इतिहास का लेखन कार्य किया जिनमें गार्सा द तासी, मातादीन मिश्र, शिवसिंह सेंगर, और जार्ज ग्रियर्सन आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। डॉ0 ग्रियर्सन कृत ग्रन्थ ‘लिट्रेचर ऑव् हिन्दोस्तान’ वस्तुतः हिन्दी साहित्य का प्रथम क्रमबद्ध इतिहास कहा जा सकता है। इस तरह विगत एक सौ सत्तर वर्षों के दौरान लिखित हिन्दी साहित्य के इतिहास-ग्रन्थों में लेखन की विभिन्न पद्धतियां दृष्टिगत होती हैं जिनमें वर्णानुक्रम पद्धति, कालानुक्रमी पद्धति, वैज्ञानिक पद्धति और विधेयवादी पद्धति प्रमुख हैं। वर्णानुक्रम पद्धति को वर्णमाला पद्धति भी कहते हैं। इसमे लेखकों, कवियों का परिचयात्मक विवरण उनके नामों के वर्णक्रमानुसार दिया जाता है। गार्सा द तासी, शिवसिंह सेंगर आदि ने अपने इतिहास-ग्रन्थों में इस पद्धति का ही प्रयोग किया है। कालानुक्रम पद्धति में कवियों और लेखकों का विवरण ऐतिहासिक कालक्रमानुसार तिथि-क्रम से होता है। जार्ज ग्रियर्सन तथा मिश्र बन्धुओं ने इसी पद्धति से अपने इतिहास ग्रन्थ लिखे। साहित्य का इतिहास रचनाकारों के जीवन-परिचय एवं उनकी कृतियों के उल्लेख मात्र से ही पूरा नहीं होता अपितु तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में कवि की प्रवृत्तियों का विश्लेषण भी किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार इतिहास लेखक पूर्णतः निरपेक्ष एवं तटस्थ रहकर तथ्य संकलित करता है और उसे क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत कर देता है। इसमें क्रमबद्धता और तार्किकता अनिवार्य शर्त है। विधेयवादी पद्धति हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन में सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुई इस पद्धति के जन्मदाता तेन माने जाते हैं। इसका प्रथमतः प्रयोग आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया। इसमें कवियों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण तत्कालीन परिस्थितियों एवं वातावरण के परिप्रेक्ष्य में किया जाता है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का वास्तविक सूत्रपात् 19वीं शताब्दी से माना जाता है यद्यपि मध्यकालीन कृति वार्ता-साहित्य यथा- ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’, ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ तथा ‘भक्तमाल’ आदि में अनेक कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय मिलता है किन्तु इतिहास लेखन के लिए अपेक्षित कालक्रमानुसार वर्णन का नितान्त अभाव होने के नाते इन ग्रन्थों को पूर्ण इतिहास-ग्रन्थ कहने में संकोच है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन का वास्तविक सूत्रपात् 19वीं शताब्दी से माना जाता है यद्यपि मध्यकालीन कृति वार्ता-साहित्य यथा- ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’, ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ तथा ‘भक्तमाल’ आदि में अनेक कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व का परिचय मिलता है किन्तु इतिहास लेखन के लिए अपेक्षित कालक्रमानुसार वर्णन का नितान्त अभाव होने के नाते इन ग्रन्थों को पूर्ण इतिहास-ग्रन्थ कहने में संकोच है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास के रूप में प्रसिद्ध प्रमुख ग्रन्थों का क्रमवार संक्षिप्त विवरण भी निम्नवत् प्रस्तुत्य है-
- हिन्दी साहित्य के इतिहास के प्रणयन का वास्तविक सूत्रपात् किसी हिन्दी भाषी व्यक्ति द्वारा न होकर फ्रेंच विद्वान गार्सा द तासी द्वारा हुआ। इस रूप में इनकी प्रसिद्ध कृति ‘इस्तवार द लितरेत्यूर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी’ दो भागों में रची गई है। इसके प्रथम भाग का प्रकाशन सन् 1839 ई0 में हुआ और द्वितीय भाग का प्रकाशन सन् 1847 ई0 में हुआ।
- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा में दूसरी महत्वपूर्ण कृति ‘शिवसिंह सरोज’ है जिसकी रचना शिवसिंह सेंगर ने सन् 1883 ई0 में की। परवर्ती इतिहासकारों ने इस ग्रन्थ में दी गयी सामग्री का भरपूर उपयोग किया यही इस विशाल ग्रन्थ की उपादेयता है।
- सर जार्ज ग्रियर्सन ने 1888 ई0 में ‘द माडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑव् हिन्दोस्तान’ नामक ग्रन्थ का प्रकाशन एशियाटिक सोसाइटी ऑव् बंगाल की पत्रिका के रूप में करवाया।
- हिन्दी साहित्य के इतिहास में ‘मिश्र बन्धु विनोद’ का महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी रचना चार भागों में की गयी है। जिनमें से प्रथम तीन भाग 1913 ई0 में प्रकाशित हुआ तथा चौथा भाग 1914 ई0 में प्रकाशित हुआ। ‘मिश्रबन्धु विनोद’ एक विशालकाय ग्रन्थ है जिसमें लगभग 5000 कवियों का विवरण उपलब्ध है।
- हिन्दी साहित्य की इतिहास परम्परा में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा रचित ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है जो मूलतः नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा 1929 ई0 में प्रकाशित हिन्दी शब्द सागर की भूमिका के रूप में लिखा गया था। यही परिवर्द्धित एवं विस्तृत होकर 1940ई0 में स्वतन्त्र पुस्तक के रूप प्रकाशित हुआ। शुक्ल जी ने इसमें लगभग एक हजार कवियों को स्थान देते हुए उनकी रचनाओं और साहित्यिक विशेषताओं की विस्तृत चर्चा की है।
- इस क्षेत्र में डॉ0 रामकुमार वर्मा कृत ‘हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ सन् 1938 में प्रकाशित हुआ। सम्पूर्ण ग्रन्थ को सात खण्डों में विभक्त करते हुए वर्मा जी ने आचार्य शुक्ल के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया।
- आचार्य शुक्ल के उपरान्त यदि किसी अन्य विद्वान की मान्यताओं को हिन्दी-जगत ने नतमस्तक होकर स्वीकार किया तो वे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी हैं, जिन्होंने आदिकाल के सम्बन्ध में पर्याप्त कार्य किया है। अब तक हिन्दी साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित उनकी ‘हिन्दी साहित्य की भूमिका’, ‘हिन्दी साहित्य: उद्भव और विकास’, ‘हिन्दी साहित्य का आदिकाल' नामक पुस्तकें प्रकाश में आई हैं।
उपर्युक्त के अतिरिक्त हिन्दी साहित्य के इतिहास से सम्बन्धित और जिन ग्रन्थों का नामोल्लेख किया जा सकता है उनमें डॉ0 भगीरथ मिश्र का ‘हिन्दी काव्य शास्त्र का इतिहास’, डॉ0 नगेन्द्र का ‘रीति काव्य की भूमिका’, डॉ0 गणपति चन्द्र गुप्त का ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का ‘हिन्दी साहित्य का अतीत’ पं0 रामनरेश त्रिपाठी का ‘कविता कौमुदी (दो भाग)’, बाबू श्यामसुन्दर दास का ‘हिन्दी भाषा और साहित्य’ सूर्यकान्त शास्त्री का ‘हिन्दी साहित्य का विवेचनात्मक इतिहास’, आचार्य चतुरसेन का ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, नागरी प्रचारिणी सभा काशी का ‘हिन्दी साहित्य का वृहद् इतिहास (18 खण्डों में) जिसके पृष्ठ भाग रीतिकाल का सम्पादन डॉ0 नगेन्द्र ने किया’ आदि हैं।
विभिन्न विद्वानों ने अपनी मति और रीति से हिन्दी की अब तक की यात्रा को कालखण्डवार विभिन्न पड़ावों में विभक्त कर जो नामकरण किया है उसका भी एक दृश्य प्रस्तुत करना समीचीन है। वैसे तो काल-विभाजन कई आधारों पर हो सकता है यथा-
विभिन्न विद्वानों ने अपनी मति और रीति से हिन्दी की अब तक की यात्रा को कालखण्डवार विभिन्न पड़ावों में विभक्त कर जो नामकरण किया है उसका भी एक दृश्य प्रस्तुत करना समीचीन है। वैसे तो काल-विभाजन कई आधारों पर हो सकता है यथा-
- कर्त्ता के आधार पर- भारतेन्दु युग, द्विवेदी प्रसाद युग और प्रसाद युग।
- प्रवृत्ति के आधार पर- भक्तिकाल (सन्त और सूफी काव्य), रीतिकाल, छायावाद एवं प्रगतिवाद।
- विकासवादिता के आधार पर- आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।
फिर भी विद्वानों की कलाकारी की कुछ झलकियां अवश्य ही प्रस्तुत्य हैं-
ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक ‘द माडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑव् हिन्दोस्तान’ को ग्यारह अध्यायों में विभक्त किया है जिसका प्रत्येक अध्याय एक काल-खण्ड को व्यक्त करता है। इस विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव तथा अध्यायों की संख्या अधिक होने के नाते इसे काल-विभाजन मानना उचित नहीं लगता।
मिश्र बन्धुओं द्वारा किए गये काल-विभाजन की एक झलक:
- आरम्भिक काल- क- पूर्वारम्भिक काल ( 700-1343 वि0), ख- उत्तरारम्भिक काल (1344-1444 वि0)
- माध्यमिक काल- क- पूर्व माध्यमिक काल (1445-1560 वि0), ख- प्रौढ़ माध्यमिक काल (1561-1630 वि0)
- अलंकृत काल- क- पूर्वालंकृत काल (1681-1790 वि0), ख- उत्तरालंकृत काल (1791-1889 वि0)
- परिवर्तन काल (1890-1925 वि0)
- वर्तमान काल (1926वि0-अबतक)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा किए गए काल-विभाजन की एक झलक:
- आदिकाल (वीरगाथा काल) (1050-1375 वि0)
- पूर्व मध्य काल ( भक्ति काल ) (1375-1700 वि0)
- उत्तर मध्य काल ( रीतिकाल ) (1700-1900 वि0)
- आधुनिक काल ( गद्य काल ) (1900वि0-अबतक)
डॉ0 रामकुमार वर्मा द्वारा किये गये काल-विभाजन की एक झलक:
- सन्धि काल ( 750-1000 वि0)
- चारण काल (1000-1375 वि0)
- भक्ति काल (1375-1700 वि0)
- रीति काल (1700-1900 वि0)
- आधुनिक काल (1900वि0-अबतक)
डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा किए गए काल-विभाजन की एक झलक:
- आदिकाल (10वीं-14वीं शती तक)
- भक्तिकाल (14वीं-16वीं शती के मध्य तक)
- रीतिकाल (16वीं शती के मध्य-19वीं शती के मध्य)
- आधुनिक काल (19वीं शती के मध्य-आजतक)
उपरोक्ततः विभिन्न विद्वानों द्वारा किया गया काल-विभाजन यद्यपि उनके अथक परिश्रम का प्रतिफल है किन्तु नवोदित सामान्य पाठकों और अनुसंधित्सुओं के लिए अत्यन्त भ्रामक है। अपेक्षाकृत अधिक स्पष्ट आचार्य शुक्ल द्वारा किए गए काल-विभाजन को आधार बनाकर हिन्दी की आज तक की यात्रा का वर्णन करने का प्रयास कर रही हूँ।
जहां से हिन्दी की यात्रा का अथ होता है उसे आदिकाल, चारणकाल, सिद्धसामन्त काल या आचार्य शुक्ल के शब्दों में वीरगाथा काल कहते हैं। अपने नामकरण के सन्दर्भ में सर्वाधिक विवादित यह काल यथा- आचार्य शुक्ल का ‘वीरगाथाकाल’, मिश्र बन्धुओं का ‘प्रारम्भिक काल (रासो काल)’, डॉं0 रामकुमार वर्मा का ‘चारणकाल (सिद्धनाथ काल)’, राहुल सांकृतायन का ‘सिद्ध सामन्त काल’, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का ‘बीजवपन काल’, डॉ0 मोहन अवस्थी का ‘आधार काल’, डॉ0 पृथ्वीनाथ कमल कुलश्रेष्ठ का ‘अन्धकार काल’ विविध और परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का काल है। इसके नामकरण के मूल में विभिन्न विद्वानों की निजी रुचियों तथा इस काल की परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों का विशेष योग माना जा सकता है जिससे अनेक नामधारी यह काल सामान्य जन के निमित्त अत्यन्त भ्रामक हो गया है। कवि, आश्रयदाताओं और उनके पूर्वजों के पराक्रम, रूप एवं दान की प्रशंशा करते थे। इस काल में भूमि और नारी का हरण राजाओं पर लिखे गए काव्यों का विषय है। इस काल में संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में भी रचनाएं हो रही थीं और साथ ही साथ अपभ्रंश की केंचुल को छोड़ती हुई हिन्दी भी अपना रूप ग्रहण कर रही थी। आदिकाल का हिन्दी साहित्य अनेक बोलियों का साहित्य प्रतीत होता है। धार्मिक दृष्टि से इस काल में अनेक ज्ञाताज्ञात साधनाएं प्रचलित थीं। सिद्ध, जैन और नाथ आदि मतों का इस काल में व्यापक प्रचार था।
अपनी यात्रा के प्रारम्भ (आदिकाल) में हिन्दी जिन साजो-सामान अर्थात् साहित्यिक सम्पदाओं से सुसज्जित होकर अग्रसर हुई उनका उल्लेख करना अत्यावश्यक है। इन सम्पदाओं में सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य प्रमुख हैं।
अपनी यात्रा के प्रारम्भ (आदिकाल) में हिन्दी जिन साजो-सामान अर्थात् साहित्यिक सम्पदाओं से सुसज्जित होकर अग्रसर हुई उनका उल्लेख करना अत्यावश्यक है। इन सम्पदाओं में सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य प्रमुख हैं।
सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन भाषा में लिखा वह हिन्दी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है। बौद्ध धर्म की दो शाखाएं हो गई थीं- हीनयान और वज्रयान। वज्रयानियों को ही सिद्ध कहा गया। राहुल सांकृतायन और पं0 रामचन्द्र शुक्ल ने सिद्धों की संख्या चौरासी बतायी है। ये लोग अपने नाम के पीछे ‘पा’ लगाते थे। इन सिद्धों में सरहपा, शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, और कुक्कुरिपा आदि हिन्दी के सिद्ध कवि हैं।
सिद्धों की बाममार्गी भोग प्रधान प्रतीकों के उदात्तीकृत यौगिक/रहस्यानुप्राणित साधना की प्रतिक्रिया के रूप में आदिकाल में नाथ-पंथियों की हठयोग साधना आरम्भ हुई। नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक मत्स्येन्द्र नाथ एवं गोरखनाथ माने गए हैं। नाथों का समय 12वीं शती से 14वीं शती तक है तथा हिन्दी सन्त-काव्य पर इनका पर्याप्त प्रभाव है। वर्णरत्नाकर, कौशल ज्ञान निर्णय, कुलानन्द, अकुलवीरतन्त्र, ज्ञानकारिका, प्राणसंकली, विमुक्त मंजरी गीत और हूँकार चित्त बिन्दु भावना इस काल की प्रमुख नाथ पन्थी रचनाएं हैं।
जैनाचार्यों और जैन-विद्वानों ने जो भी सुन्दर आत्म-पीयूष रस से छलछलाता साहित्य हिन्दी भाषा में रचा वही साहित्य आज ‘हिन्दी जैन साहित्य’ के नाम से जाना जाता है। इस साहित्य का महत्व इस बात में है कि यह प्रायः प्रमाणिक रूप में उपलब्ध है। जैन मतावलम्बी रचनाएं दो प्रकार की हैं- एक में नाथ सिद्धों की तरह अन्तस्साधना, उपदेश, नीति और सदाचार पर बल है तथा कर्मकाण्ड का खण्डन है। ये मुक्तक हैं और प्रायः दोहों में रचित हैं। दूसरे में पौराणिक जैन साधकों की प्रेरक जीवन-कथा या लोक प्रचलित कथाओं को आधार बनाकर जैन मत का प्रचार किया गया।
जैनाचार्यों और जैन-विद्वानों ने जो भी सुन्दर आत्म-पीयूष रस से छलछलाता साहित्य हिन्दी भाषा में रचा वही साहित्य आज ‘हिन्दी जैन साहित्य’ के नाम से जाना जाता है। इस साहित्य का महत्व इस बात में है कि यह प्रायः प्रमाणिक रूप में उपलब्ध है। जैन मतावलम्बी रचनाएं दो प्रकार की हैं- एक में नाथ सिद्धों की तरह अन्तस्साधना, उपदेश, नीति और सदाचार पर बल है तथा कर्मकाण्ड का खण्डन है। ये मुक्तक हैं और प्रायः दोहों में रचित हैं। दूसरे में पौराणिक जैन साधकों की प्रेरक जीवन-कथा या लोक प्रचलित कथाओं को आधार बनाकर जैन मत का प्रचार किया गया।
इस काल में ही एक रासो काव्य परम्परा फलवती हुई। जिसने अपनी महत्वपूर्ण रचना सम्पदा से इस प्रथम सोपान को धनी बनाया। रासो काव्य परम्परा का श्रीगणेश अपभ्रंश से होता है। अपभ्रंश की यह परम्परा गुजराती साहित्य से होती हुई राजस्थानी साहित्य एवं बाद में हिन्दी साहित्य में प्रचलित हुई अतः हिन्दी में रासो काव्य परम्परा का प्रचलन गुजराती साहित्य से प्रारम्भ हुआ। रासो काव्य परम्परा का प्रथम प्रामाणिक काव्य अद्दमहाण (अब्दुर्रहमान) कृत सन्देश रासक है। यह परम्परा आदिकाल से आधुनिक काल के प्रारम्भ तक दृष्टिगोचर होती है।
इस प्रारम्भिक काल की प्रमुख रचनाएं कविवार निम्न रूप में रूपायित हैं-
- नल्ल सिंह भाट की रचना विजयपाल रासो।
- शारङ्गधर की रचना हम्मीर रासो।
- विद्यापति की रचना कीर्तिलता, कीर्तिपताका और पदावली।
- दलपति विजय की रचना खुम्माण रासो।
- नरपति नाल्ह की रचना बीसलदेव रासो।
- चन्दबरदाई की रचना पृथ्वीराज रासो।
- केदार भट्ट की रचना जयचन्द प्रकाश।
- मधुकर भट्ट की रचना जयमयंक-जसचन्द्रिका।
- जगनिक की रचना परमाल रासो।
- अमीर ख़ुसरो की रचना ख़ुसरो की पहेलियां।
- अब्दुर्रहमान की रचना सन्देश रासक।
- स्वयंभू की रचना पउम चरिउ, स्वयंभू छन्द, रिट्ठणेमि चरिउ।
- धनपाल की रचना भविस्सयत कहा।
- मुनिराम सिंह की रचना पाहुड़ दोहा।
- श्रीधर की रचना रजमल्ल छन्द।
- गोरखनाथ की रचना ज्ञानदीप, काफ़िरबोध, गोरखसार।
- देवसेन की रचना दर्शनसार, तत्वसार।
- पुष्पदन्त की रचना हरिवंश पुराण।
- हरिभद्र सूरि की रचना णेमिणाई।
- हेमचन्द की रचना व्याकरण, सिद्ध-हेम-शब्दानुशासन।
- कुशललाभ की रचना ढोला मारु रा दूहो।
- मुल्ला दाउद की रचना चन्दायन।
हिन्दी को प्रारम्भिक काल (आदिकाल) में तत्कालीन अव्यवस्थित धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक प्रवृत्तियों से दो चार होना पड़ा। विदेशी मुस्लिम-यवन आक्रमणकारियों के उपद्रव एवं विकृत धार्मिक भावनाओं के त्रास से इस काल का साहित्य अछूता नहीं रहा अपितु उसकी प्रतिक्रिया का परिणाम माना जा सकता है। इस काल के साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का वर्णन अग्ररूपेण किया जा सकता है-
धन, उपहार एवं सम्मान की लालच में आश्रयदाता राजाओं की चाटुकारितापूर्ण प्रशंसा इस काल की एक प्रमुख प्रवृत्ति थी, जो तत्कालीन साहित्य में उदात्त रूप से दृष्टिगत है। यथा-
‘‘वीर रोस वर बैर बर, झुकि लग्गौ असमान।
तौ नन्दन सोमेस को, फिर बन्धौ सुरतान।।’’
इस काल के काव्यों में राष्ट्रीय भावना के अभाव की प्रवृत्ति तथा कल्पना की प्रधानता पायी जाती है। यथा-
‘‘सचल चीर रह पयोधर सीमा।
कनक बेल अनि पडि गेल हिया।।
ओनुक करतहिं चाहि किए देहा।
अब छोड़ब मोरि तेजब नेहा।।
एसन रह नहि पाओब अनरा।
इसे लागि रोए गरए जल धारा।।’’
इस काल के कवि केवल वीर रस की कविता ही नहीं करते थे अपितु वे युद्धों में भाग भी लेते थे। इस काल के कवि अपने आश्रयदाता राजाओं के साथ युद्ध क्षेत्र में जाते थे और वहां जैसी घटना घटित होती थी वैसा ही वर्णन किया करते थे। यथा-
‘‘लटक्कै जुरन उडै हंस हल्लै,
रस भीज सूर चवग्यान बिल्लै।
लगे सीस नेजा भ्रमै भेज तथ्यं,
भषै बाहसं भात दीपत्ति सथ्थं।’’
आदिकालीन कवियों में राष्ट्रवादी भावना के स्थान पर क्षेत्रवादी भावनाएं ही प्रबल रही हैं जिसके कारण ये एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित होकर रह गये। इस काल के कवियों ने प्रायः वीर रस के साथ-साथ श्रृंगारपरक रचनाएं ही ज्यादा कीं, जिसके कारण प्रेम तथा युद्धों को बढ़ावा मिला। यथा-
आदिकालीन कवियों में राष्ट्रवादी भावना के स्थान पर क्षेत्रवादी भावनाएं ही प्रबल रही हैं जिसके कारण ये एक क्षेत्र विशेष तक ही सीमित होकर रह गये। इस काल के कवियों ने प्रायः वीर रस के साथ-साथ श्रृंगारपरक रचनाएं ही ज्यादा कीं, जिसके कारण प्रेम तथा युद्धों को बढ़ावा मिला। यथा-
‘‘विगलति चिकुरमिलिन मुख मण्डल चाँद मेढ़ल बन माल।
मनिमय कुण्डल सचने दुलित भेज घा मे तिलक बहिके ला।।’’
आदिकालीन कवि विशेषकर नाथों और सिद्धों ने वाह्य आडम्बरों का जमकर विरोध किया। इन्होंने आचरण की शुद्धता पर अधिक जोर दिया है। यथा-
‘‘गंगा के नहाए कहौ को नर तरिगे,
मछरी न तरी जाको पानी ही में घर है।’’
आदिकालीन कवि युद्ध-काल में वीर रस की कविता तो करते ही थे, शान्ति-काल में अथवा युद्ध विजय के अवसरों पर श्रृंगारिक कविताएं सुनाकर राज-दरबार का मनोरंजन भी करते थे। यथा-
‘‘मनहुं कला ससिभान कला सोलह सो बन्निय,
बाल बसै ससि ता समीप अमृत रस पिन्निय।
बिगसि कमल स्निग भमर बेनु खंजन मृग लुट्टिय,
हीर,कीर,अहि,बिम्ब, मोति नख-षिख, अहि घुट्टिय।’’
इस काल में छन्दों में विविधता पाई जाती है। कवियों द्वारा प्रयुक्त लगभग बहत्तर प्रकार के छन्दों में छप्पय की प्रधानता है। वीर रस से ओत-प्रोत मनहर कवित्त की एक योजना दर्शनीय है-
‘‘उतमंग तुट्टै परै श्रौन धारी,
मनो दण्ड सुक्की अगी बाइ बारी।
मनो दण्ड सुक्की अगी बाइ बारी।
नचै कंध बंध हकै सीस भारी,
तहां जोगमाया जकी सी बिचारी।।’’
आदिकालीन साहित्य में भाषा के दो रूप मिलते हैं। देश के पश्चिम में बोली जाने वाली पिंगल तथा उत्तर भारत के मध्य बोली जाने वाली भाषा को डिंगल कहा जाता था। पृथ्वीराज रासो की भाषा का एक उदाहरण देखिए-
तहां जोगमाया जकी सी बिचारी।।’’
आदिकालीन साहित्य में भाषा के दो रूप मिलते हैं। देश के पश्चिम में बोली जाने वाली पिंगल तथा उत्तर भारत के मध्य बोली जाने वाली भाषा को डिंगल कहा जाता था। पृथ्वीराज रासो की भाषा का एक उदाहरण देखिए-
‘‘उक्ति धर्म विशालस्य राजनीति नव रस।
षट् भाषा पुराणं च, कुराणं कथित मया।।’’
उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य का आदिकाल हर प्रकार से विशेष महत्व का है इसके हर क्षेत्र में विविधता पाई जाती है, और यह काल सर्वाधिक विवादग्रस्त रहा है। शायद भारत वर्ष के किसी भी भाषा के साहित्य में इतने विरोधों और अन्तर्व्याघातों का युग कभी नहीं आया।
उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य का आदिकाल हर प्रकार से विशेष महत्व का है इसके हर क्षेत्र में विविधता पाई जाती है, और यह काल सर्वाधिक विवादग्रस्त रहा है। शायद भारत वर्ष के किसी भी भाषा के साहित्य में इतने विरोधों और अन्तर्व्याघातों का युग कभी नहीं आया।
-शालिनी पाण्डेय
प्रवक्ता, हिन्दी विभाग,
श्रीमती जे. देवी महिला पी.जी.कॉलेज,
बभनान-गोण्डा।
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 29-08-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबधाई ||
आपके पोस्ट के द्वारा बहुत सी नई बातें को जानने का मौका मिला....आगे भी जरुर लिखें
ReplyDeleteसुन्दर रचना .
ReplyDeleteसोमवती अमावस्या एवं पोला पर्व की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं .
काफी महत्वपूर्ण और विस्तृत जानकारी दी है आपने. मेरी राय में अगर इसे कुछ खंडों में विभक्त करके देतीं तो और भी अच्छा रहता. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteमहत्वपूर्ण जानकारी, आपकी हिन्दी की विकास यात्रा देखकर अपनी यात्राएँ याद आती है।
ReplyDeleteVery nice...
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