Saturday, January 15, 2011

राष्ट्रीय युवा-दिवस एवं स्वामी विवेकानन्द


               विश्व के अधिकांश देशों में कोई न कोई दिन युवा-दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती अर्थात् 12 जनवरी का दिन प्रतिवर्ष राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णयानुसार सन् 1985 ई0 को अन्तर्राष्ट्रीय युवा-वर्ष घोषित किया गया। इसके महत्त्व का विचार करते हुए भारत सरकार ने घोषणा की कि- सन् 1985 से 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानन्द जयन्ती का दिन राष्ट्रीय युवा-दिवस के रूप में देश भर में सर्वत्र मनाया जाय। इस सन्दर्भ में भारत सरकार का विचार था कि ’स्वामी जी का दर्शन एवं स्वामी जी का जीवन तथा कार्यों में निहित उनका आदर्श भारतीय युवकों के लिए बहुत बड़ा प्रेरणा का स्रोत हो सकता है। वास्तव में स्वामी विवेकानन्द आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं। विशेषकर भारतीय युवकों के लिए उनसे बढ़कर दूसरा कोई नेता नहीं हो सकता। उन्होंने हमें कुछ ऐसा दिया है जो हममें अपने उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त परम्परा के प्रति एक प्रकार का अभिमान जगा देती है। स्वामी जी ने जो कुछ भी लिखा है वह हमारे लिए हितकर है और होना ही चाहिए तथा वह आने वाले लम्बे समय तक हमें प्रभावित करता रहेगा। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में उन्होंने वर्त्तमान भारत को दृढ़ रूप से प्रभावित किया है। भारत की युवा-पीढ़ी स्वामी विवेकानन्द से निःसृत होने वाले ज्ञान, प्रेरणा एवं तेज के स्रोत से लाभ उठाएंगी।’*
 इस अवसर पर डॉ0 वी0 के0 जी शुक्ल की इस कविता कि-
भेद कर दुर्भेद्य धर्मावरण को,
जो दे सके इंसानियत का सबूत।
वह ही युवा है।।

जब मान्यतायें रूढ़ियों में बदल जायें,
कभी की काल-सम्मत प्रथायें
बदलते वक्त में अजगर सी जकड़ जायें,
क्षण-क्षण बदलते वक्त की आवाज़
गुज़रे वक्त की खांसियों में दब जाये,
जो सिरे से इनको नकारे और
करदे इक नई शुरुआत,
वह ही युवा है।।

भोग करके भोग में जो लिप्त न हो,
सत्य-सेवा का वरण करके कभी इस
दम्भ से विक्षिप्त न हो,
‘मार्ग कितना भी कठिन हो आगे बढ़ेंगे’
इस फ़ैसले के अलावा कोई फैसला
अतिरिक्त न हो,
‘दर्द सबका दूर करना धर्म मेरा’
इस भावना से जो भरा हो,
वह ही युवा है।

जिसके क़दम हर क्षण मचलते हों
किसी प्रयाण को, दुर्दान्त पर्वत-श्रेणियों
पर जो थिरकते, गतिमान करते पाषाण को,
उफनते सिन्धु पर अठखेलियों में जो मगन हों,
गति नहीं अवरुद्ध जल हो, धरा हो, गगन हो,
उल्लास से भरपूर हर क्षण,
हर परिस्थिति में जो मुस्कुराये,
वह ही युवा है।।*
का स्मरण न करना युवकों के प्रति बे-ईमानी ही होगी।
                स्वामी विवेकानन्द जी के जीवनवृत्त, आदर्श, राष्ट्र-चिन्तन, आचार-विचार तथा उनसे सम्बन्धित सब कुछ हमारे लिए प्रेरणा के स्रोत हो सकते हैं। स्वामी विवेका जी का जन्म सन् 1863 ई0 को कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखने के कारण पुत्र नरेन्द्र (विवेकानन्द जी का घर का नाम) को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पश्चिमी सभ्यता के ढंग पर चलाना चाहते थे किन्तु बचपन से ही प्रखर बुद्धि नरेन्द्र दत्त परमात्मा को पाने की प्रबल लालसा रखते थे। इस हेतु पहले वे ब्रह्मसमाज में गये पर वहाँ वे असन्तुष्ट ही रहे। सन् 1884 ई0 में पिता के देहावसानोपरान्त घर की सम्पूर्ण जिम्मेदारियों का बोझ उनके कन्धों पर आ पड़ा। घर की दशा भी बदतर होती जा रही थी। शुक्र था कि उनका विवाह नहीं हुआ था। अत्यन्त ग़रीबी में भी नरेन्द्र अतिथियों की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ते थे और रातभर भीगते-ठिठुरते रहकर अपना विस्तर अतिथियों के हवाले कर देते थे।
               मानसिक संतुष्टि प्राप्ति हेतु स्वामी रामकृष्ण परमहंस की प्रशंशा सुनकर नरेन्द्र उनके पास तर्क-वितर्क के ही विचार से गये थे किन्तु परमहंस जी ने देखते ही पहचान लिया कि यह तो वही शिष्य है जिसकी उन्हें कई दिनों से प्रतीक्षा थी। परमहंस जी की कृपा से नरेन्द्र को आत्मसाक्षात्कार हुआ और वे उनके शिष्यों में प्रमुख हो गये। सन्यस्त होने के बाद इनका नाम विवेकानन्द पड़ा।
                 स्वामी जी अपना जीवन अपने गुरुदेव को समर्पित कर चुके थे। कैंसर रोग से पीड़ित अपने गुरु की सेवा करना अपना परम् धर्म मान लिया था। गुरु-प्रताप से ही विवेकानन्द जी समग्र विश्व में आध्यात्म रूपी भारत के अमूल्य ख़जाने की सुगन्धि फैला सके।
                विवेकानन्द जी ने 25 वर्ष की अवस्था में गेरुआ वस्त्र धारण करके सम्पूर्ण भारत की पैदल यात्रा की। सन् 1893 ई0 में शिकागो (अमेरिका) के विश्व-धर्म-परिषद् में स्वामी जी भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुँचे। युरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखते थे। षड्यन्त्र रचा गया कि विवेकानन्द जी को परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमरीकन प्रोफेसर के सहयोग से थोड़ा समय मिला उसी में स्वामी जी ने अपने विचारों से उपस्थित सभी विद्वानों को चकित कर दिया। फिर तो अमरीका में बड़े जोर-शोर से उनका स्वागत हुआ। तीन वर्ष तक अमेरिका-प्रवास के दौरान वहाँ के लोगों को भारतीय तत्त्व ज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। वहाँ पर उनके भक्तों का एक समुदाय हो गया। 'उनकी वक्तृत्त्व शैली तथा ज्ञान को देखते हुए वहाँ की मीडिया ने उन्हें साईक्लॉनिक हिन्दू का नाम दिया।'* 'आध्यात्म विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा यह स्वामी विवेकानन्द जी का दृढ़ विश्वास था।'* अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की कई शाखाएं स्थापित कीं। कई बार विदेशों की यात्राएं कीं और भारत के गौरव को देश-देशान्तर में फैलाने का उन्होंने सदा प्रयास किया। उनके धार्मिक विचार, राष्ट्रीयता की भावना, अपने कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता तथा प्रत्येक विपरीत परिस्थितियों में भी हतोत्साहित न होने की कला आदि सब कुछ युवा-पीढ़ी के लिए प्रेरणास्पद है। 4 जुलाई सन् 1902 ई0 में उन्होंने बेलूर मठ से परलोक के लिए प्रस्थान किया।
सन्दर्भः-
       * विकिपीडिया, स्वामी विवेकानन्द, राष्ट्रीय युवादिवस।
       * आ0 न0 दे0 कि0 पी0 जी0 कॉलेज बभनान, गोण्डा की महाविद्यालयी
           पत्रिका सविता, अंक 2009-10, पृ0-18
       * विकिपीडिया, स्वामी विवेकानन्द।
       * वही।
                                                                       -शालिनी पाण्डेय

3 comments:

  1. अच्छा और उपयोगी लेख। बधाई। और लिखती रहिए।

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  2. kya baaat hai? yah yuwaon ko disha dega.

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  3. मैने आपका ब्लॉग देखा बड़ा ही सुन्दर लगा .
    बहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!
    शुभकामनायें.

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