Wednesday, February 9, 2011

बौद्ध धर्म-दर्शन का विकास एवं ह्रास: भारत के विशेष सन्दर्भ में

    ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में धार्मिक आन्दोलन का उदात्त रूप हम बौद्ध धर्म की शिक्षाओं तथा सिद्धान्तों में पाते हैं जो कई शताब्दियों तक राजाश्रय पाकर भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी ख़ूब फला-फूला। अशोक एवं हर्ष के प्रयास से इस धर्म ने बाहर भी भारत की अमिट छाप छोड़ी विशेषतः दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में। सनातन वैदिक धर्म में आई विसंगतियों और कर्मकाण्ड-जनित विक्षोभ की प्रतिक्रिया स्वरूप उपजा यह धर्म आसानी से जनप्रिय होता चला गया।
    पिछली शताब्दी के सांस्कृतिक जागरण का एक परिणाम था बौद्ध धर्म से सम्बन्धित ज्ञान का विकास। भारतीयों के लिए यह एक गौरव और महिमा का प्रत्यभिज्ञान था। दक्षिण, मध्य और पूर्वी एशिया के बौद्ध देशों के लिए भी विद्या और साहित्य के इस उद्धार ने नवीन परिष्कार और प्रगति को दिशा दी। टर्नर और फाउसबाल चाइल्डर्स और ओल्देनबर्ग, श्रीमान् और श्रीमती राइज डेविड्स, धर्मानन्द कोशाम्बी और बरुआ एवं अन्यान्य विद्वानों के यत्न से पालि भाषा का परिशीलन, अपने प्रकांत रूप में विकसित हुआ। बर्नूफ, मैक्समूलर, कर्न और सिल्वॉलेबी, हर प्रसाद शास्त्री और राजेन्द्र मित्र आदि के प्रयत्नों से लुप्तप्राय बौद्ध संस्कृत साहित्य का पुनरुद्धार हुआ। क्सोमा द कोरोस, शरच्चन्द दास, विद्याभूषण और पुर्से आदि ने तिब्बती भाषा, बौद्ध न्याय, सर्वास्तिवादी अभिधर्म आदि के आधुनिक ज्ञान का विस्तार किया। कनिंघम और मार्शल, स्टाइन, फ्यूशेर तथा कुमारस्वामी आदि विद्वानों ने बौद्ध पुरातत्त्व और कलावशेषों की खोज़ तथा उनके सापेक्ष काल-निर्धारण किया। नाना भाषाओं और पुरातत्त्व के गहन परिशीलन के उपरान्त शताधिक वर्षों के इस आधुनिक प्रयास ने बौद्ध धर्म की जानकारी को एक विशाल और जटिल कलेवर प्रदान किया है।
    सदियों से आज तक विदेशों में अपना परचम लहराता यह धर्म धर्म-जगत की अगुवाई करता रहा है, किन्तु इसके उत्स-केन्द्र भारत में ही इसकी वर्णनातीत दयनीय दशा का कारण इसके अन्ध भक्त ही हो सकते हैं, क्योंकि आजकल भारत में यह प्रथा अधिक प्रचलित है कि सनातन धर्म के विरोध स्वरूप बौद्ध धर्म अपना लो चाहे इसके सिद्धान्तों का किंचित भी ज्ञान न हो। आज तो भारत में बौद्ध धर्मानुयायी सरकार द्वारा प्रदत्त अल्पसंख्यकों के लिए अनुदान का भी लाभ उठा रहे हैं भले ही हिन्दू रीति-रिवाजों का पालन कर रहे हों। एक हाथ में दो-दो लड्डू। यह प्रथा इस धर्म के गुणात्मक ह्रास का कारण है। फलतः वह मुक्ति का साधन न होकर विरोध का साधन ज्यादा हो गया है। वैसे तो सभी धर्म हमें उच्चतम मूल्यपरक नैतिक जीवन जीने की कला बताते हैं पर जब कोई धर्म विरोध का पर्याय बन जाय तो उसकी अधः गति सुनिश्चित है। भारत में बौद्ध धर्म की यही नियति बनी। जो दुःखद है। फाहियान, सुंगयुन, युवानच्वांग, इ-कुंग के विवरणों से बौद्ध धर्म के मध्य एशिया और भारत में क्रमिक ह्रास की सूचना मिलती है जिसकी अन्य साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पुष्टि होती है। प्रमाण है कि अनेक बौद्ध सूत्रों में सद्धर्म की अवधि 500 अथवा 1000 अथवा 1500 वर्ष बताई गयी है। कपिलवस्तु, श्रावस्ती, गया और वैशाली में इसका ह्रास गुप्त युग में ही दिखायी पड़ने लगा था। गान्धार और उड्डियान में हूणों के कारण सद्धर्म की क्षति हुई प्रतीत होती है। युवांगच्वांग ने पूर्वी दक्षिणापथ में बौद्ध धर्म को लुप्तप्राय देखा। इत्सिंग ने अपने भाषा में केवल चार सम्प्रदायों- महासांघिक, स्थविर, मूलसर्वास्तिवादी एवं सम्मतीय, को भारत में प्रचारित पाया। विहारों में हीनयानी एवं महायानी मिश्रित थे। सिन्ध में बौद्ध धर्म अरब शासन के युग में क्रमशः क्षीण और लुप्त हुआ। गान्धार और उड्डियान में बज्रयान और मन्त्रयान के प्रभाव से बौद्ध धर्म का आठवीं शताब्दी में कुछ उज्जीवन ज्ञात होता है किन्तु अल्बेरूनी के समय तक तुर्की प्रभाव से वह ज्योति लुप्त हो गयी थी। कहने में गुरेज़ नहीं कि बज्रयानी-कदाचार ही इसका प्रमुख कारण बना। कश्मीर में भी इस्लाम के प्रभुत्व की स्थापना के कारण उसका लोप मानना चाहिए। पश्चिमी एवं मध्य भारत में राजकीय उपेक्षा, ब्राह्मण तथा जैन धर्मों के प्रसार के कारण सद्धर्म का लोप प्रतीत होता है। मध्य प्रदेश में गुप्त काल से ही राजकीय पोषण के अभाव के कारण इसका क्रमिक ह्रास देखा जा सकता है। मगध और पूर्व देश में पाल नरेशों की छत्र-छाया में बौद्ध धर्म और उसके शिक्षा केन्द्र नालन्दा, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी अपनी ख्याति के चरम शिखर पर पहुँचे परन्तु इस प्रदेश में इसके ह्रास का कारण तुर्कों का विजय अभियान हुआ।
    यह स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म के ह्रास का मुख्य कारण उसका अपने को लौकिक-सामाजिक जीवन का अनिवार्य अंग न बना पाना था। वैसे भी बौद्ध धर्म एक दर्शन है न कि जीवन जीने की आदर्श नियम संहिता, जिसको अपेक्षा थी एक विद्वत समाज की जो धर्म और दर्शन को भली-भांति समझ सके। अतः यह धर्म लोक जीवन से कटता गया। राजकीय उपेक्षा अथवा विरोध से विहारों के संकटग्रस्त होने पर उपासकों में सद्धर्म अनायास लुप्त होने लगता था। यह स्मरणीय है कि उदयनाचार्य के अनुसार ‘‘ ऐसा कोई सम्प्रदाय न था कि सांवृत्त कहकर भी वैदिक क्रियाओं के अनुष्ठान को स्वीकार न करता हो।‘‘ उपासकों के लिए बौद्ध धर्म केवल शील अथवा ऐसी भक्ति के रूप में था जिसे ब्राह्मण धर्म से मूलतः पृथक् कर सकना जनता के लिए उतना ही कठिन था जितना शून्यता तथा नैरात्मवाद के सिद्धान्तों को समझ सकना। कदाचित ही आज की बुद्धिवादिनी जनता के लिए शील, प्रज्ञा एवं समाधि का धर्म पहले की अपेक्षा अधिक उपयुक्त हो। वैसे भी जनसामान्य को सच्चा, शालीन और सहज जीवन-दर्शन चाहिए न कि गूढ़, रहस्यवादी योगतन्त्र और विज्ञानवाद।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
  • विकिपीडिया, बुद्ध और बौद्ध धर्म
  • शिंसौ हानायामा: बिब्लियोग्राफी ऑन बुद्धिज्म
  • विंटरनित्स: हिस्ट्री ऑव् इंडियन लिट्रेचर, जि. 2, कलकत्ता, 1933.
  • हेल्ड, दॉइचे: बिब्लियोग्राफी देस बुद्धिज्म्स: लाइ-पज़िग, 1916 मार्च.
  • ए बुद्धिस्ट बिब्लियोग्राफी, लन्दन, 1935.
  • बिब्लियोग्राफी ऑव् इण्डियन ऑर्कियोलॉजी (लाइडेन) विण्टरनित्स, पूर्वोद्धृत, पृ. 507.
  • केम्ब्रिज हिस्ट्री ऑव् इण्डिया, जि. 1, रायचौधरी, पोलिटिकल हिस्टी ऑव् एंशेंट इण्डिया.
  • मैकडॉनेल एण्ड कीथ: वैदिक इण्डेक्स.
  • बरुआ: हिस्ट्री ऑव् प्री बुद्धिस्टिक इण्डियन फिलॉसफी.
  • दत्त एवं चटर्जी: एन इण्ट्रोडक्शन टू इण्डियन फिलॉसफी.
                                                           -शालिनी पाण्डेय 

Sunday, February 6, 2011

हिन्दी के यात्रा-वृत्तान्त : प्रकृति और प्रदेय

    हिन्दी के परम्परागत अनुसंधान-विषयों जैसे- निबन्ध, उपन्यास, कहानी, नाटक, जीवनी आदि पर अब तक अनेकशः अनुसंधान हो चुके हैं और हो रहे हैं, किन्तु हिन्दी गद्य की अन्य विधाओं यथा सूचना प्रौद्योगिकी, यात्रा-वृत्त, रिपोर्ताज, आत्मकथा, डायरी लेखन आदि पर बहुत कम अनुसंधान-ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इन पर भी शोध की परम् आवश्यकता है।
    हिन्दी के यात्रा-वृत्त यद्यपि बहुतायत हैं किन्तु इस विधा पर हुए शोधों में यू० जी0 सी0 द्वारा अन्तर्जाल पर प्रकाशित सूची के अनुसार 1949 से 2004 तक मात्र एक शोध प्रबन्ध प्राप्त हो सका है तथा इस विधा पर उपलब्ध पुस्तकों की संख्या भी नगण्य ही है। उपलब्ध हो पा रही पुस्तकों में विश्वमोहन तिवारी की पुस्तक ‘हिन्दी का यात्रा साहित्य: एक विहंगम दृष्टि, रेखा परवीन उप्रेती की ‘हिन्दी का यात्रा साहित्य (1950-1990 तक), मुरारी लाल की ‘हिन्दी यात्रा साहित्य: स्वरूप और विकास, प्रतापपाल शर्मा की ‘हिन्दी का आधुनिक यात्रा साहित्य और डॉ0 अनिल कुमार का ‘स्वातन्त्र्योत्तर यात्रा साहित्य का विश्लेषणत्मक अध्ययन आदि ही हैं। इसी के मद्देनज़र प्रकृत् शोध-प्रस्तावना ‘हिन्दी के यात्रा-वृत्तान्त: प्रकृति और प्रदेय प्रस्तुत है।
    मनुष्य का चाहे बचपना हो अथवा युवावस्था उसकी प्रवृत्ति सदैव से ही घुमक्कड़ी रही है। वह अपने बाल्यकाल से लेकर प्रौढ़ावस्था तक कहीं न कहीं भ्रमण करने की चेष्टा किया करता है। इस भ्रमण में जो भी पात्र और विचार सम्पर्क में आते हैं वह उसके मानस-पटल पर अंकित हो जाते हैं। जब वह अपने मानस-पटल पर अंकित विचारों को लिपिबद्ध करता है तब वहीं से यात्रा-साहित्य का जन्म होता है। लेखक जब यात्रा साहित्य का सृजन करता है तब उसके मूल में उसका प्रकृति के प्रति प्रेम और उसके दार्शनिक विचार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    यात्रा शब्द की व्युत्पत्ति ‘या’ में ष्टुन धातु एवं प्रत्यय के जोड़ने से हुई है। यात्रा का अर्थ होता है एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। किसी यात्रा का जीवन्त विवरण और लेखक की उससे जुड़ी संवेदनायें मिलकर यात्रा साहित्य का निर्माण करती हैं। लेखक को यात्रा-वृत्त का वर्णन इस प्रकार प्रस्तुत करना चाहिए कि उसका चित्र पाठक के समक्ष पूर्णरूपेण उभर जाये। यही कारण है कि यात्रा-वृत्त लिखने वाला, इतिहासकार से अधिक चित्रकार होता है। डॉ0 रामचन्द्र तिवारी के शब्दों में- ‘‘यात्रा-वृत्तान्तों में देश-विदेश के प्राकृतिक दृश्यों की रमणीयता, नर-नारियों के विविध जीवन सन्दर्भ, प्राचीन एवं नवीन सौन्दर्य चेतना की प्रतीक कलावृत्तियों की भव्यता तथा मानवीय सभ्यता के विकास के द्योतक अनेक वस्तु, चित्र, यायावर लेखक-मानस में रूपायित होकर वैयक्तिक रागात्मक ऊष्मा से दीप्त हो जाते हैं। लेखक अपनी बिम्बविधायिनी कल्पना शक्ति से उन्हें पुनः मूर्त करके पाठकों की जिज्ञासा-वृत्ति को तुष्ट कर देता है।’’1
    यात्रा साहित्य का प्रथम ग्रन्थ सन् 1883 ई0 में श्रीमती हरदेवी द्वारा लिखित ‘लन्दन यात्रा’ माना जाता है। डॉ0 रामचन्द्र तिवारी ने यात्रा साहित्य का प्रारम्भ भारतेन्दु से माना है। तिवारी जी के शब्दों में ‘‘हिन्दी साहित्य में यात्रा-वृत्तान्त लिखने की परम्परा का सूत्रपात भारतेन्दु से माना जा सकता है। भारतेन्दु ने ‘सरयू पार की यात्रा’, ‘मेंहदावल की यात्रा’ और ‘लखनऊ की यात्रा’ आदि शीर्षकों से इन वृत्तान्तों का बड़ा रोचक और सजीव वर्णन प्रस्तुत किया है।’’2 भारतेन्दु के बाद यात्रा साहित्य की एक अखण्ड परम्परा देखने को मिलती है। इन यात्रा-वृत्तों में हिन्दी प्रदेश में निवास करने वाले विशाल मानव-समुदाय के मानसिक क्षितिज की सूचना मिलती है। इन रचनाओं में पं0 दामोदर कृत ‘मेरी पूर्व दिग्यात्रा’, देवी प्रसाद खत्री कृत ‘रामेश्वर यात्रा’ और ‘बदरिकाश्रम यात्रा’, शिव प्रसाद गुप्त कृत ‘पृथ्वी प्रदक्षिणा’ और पं0 राम नारायण मिश्र कृत ‘यूरोप यात्रा में छः मास’ आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
    महापण्डित राहुल सांकृत्यायन, रामबृक्ष बेनीपुरी, यशपाल, अज्ञेय, डॉ0 भगवतशरण उपाध्याय, रामधारी सिंह  ‘दिनकर’, नागार्जुन, प्रभाकर माचवे, राजा बल्लभ ओझा आदि अनेक यात्रा प्रेमी तथा जन्मजात शैलानी प्रवृति के यायावर सामने आए। इन्हीं के द्वारा हिन्दी के यात्रा-साहित्य की श्री वृद्धि हुई। महत्त्व के यात्रा-वृत्तों में राहुल सांकृत्यायन कृत ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘मेरी लद्दाख यात्रा’, ‘किन्नर देश में’ और ‘रूस में पच्चीस मास’; रामबृक्ष बेनीपुरी कृत ‘पैरों में पंख बांधकर’ और ‘उड़ते चलो-उड़ते चलो’; यशपाल कृत ‘लोहे की दीवार के दोनों ओर’; अज्ञेय कृत ‘अरे यायावर रहेगा याद’ और ‘एक बूँद सहसा उछली’; डॉ0 भगवतशरण उपाध्याय कृत ‘कलकत्ता से पोलिंग’ और ‘सागर की लहरों पर’; रामधारी सिंह ‘दिनकर’ कृत ‘देश-विदेश’; प्रभाकर माचवे कृत ‘गोरी नज़रों में हम’ प्रमुख हैं। परवर्ती लेखकों में मोहन राकेश कृत ‘आखिरी चट्टान तक’; प्रभाकर द्विवेदी कृत ‘पार उतरि कहँ जइहौ; डॉ0 रघुवंश कृत ‘हरी घाटी’ तथा धर्मवीर भारती कृत ‘यादें यूरोप की’ आदि रचनाओं की अधिक चर्चा हुई।
    यदि देखा जाय तो पिछले बीस-बाईस वर्षों से हिन्दी का यात्रा-साहित्य अधिक विकसित हुआ। सांस्कृतिक यात्रा-वृत्त भी अब अधिक लिखे जाने लगे हैं। हमारे साहित्यकारों को विदेशी भ्रमण की सुविधाएं भी अधिक मिलने लगी हैं फलतः यात्रा-वृत्तान्तों की गिनती में भी इज़ाफा होने लगा है। अमृता प्रीतम कृत ‘इक्कीस पत्तियों का गुलाब’; दिनकर कृत ‘मेरी यात्राएं’; डॉ0 नगेन्द्र कृत ‘अप्रवासी की यात्राएं’; श्रीकान्त शर्मा कृत ‘अपोलो का रथ’; गोविन्द मिश्र कृत ‘धुन्ध भरी सुर्खी’; कमलेश्वर कृत ‘खण्डित यात्राएं’; विष्णु प्रभाकर कृत ‘ज्योति पुंज हिमालय’; रामदरश मिश्र कृत ‘तना हुआ इन्द्र धनुष’ आदि कृतियां इस विधा की उपलब्धि मानी जाती हैं। यात्रा-वृत्तों में हम दृश्यों, स्थितियों और उनके अनुकूल-प्रतिकूल लेखक की मानसिक प्रतिक्रियाओं से भी परिचित होते हैं। यही कारण है कि यात्रा-वृत्तों का स्वरूप भी लेखक की रुचि, संस्कार, संवेदनशीलता और मानसिकता के अनुसार पृथक्-पृथक् ढल जाता है।
    निष्कर्षतः रामचन्द्र तिवारी के शब्दों में ‘‘यात्रा-वृत्तान्त सामान्य वर्णनात्मक शैली के अतिरिक्त डायरी, पत्र और रिपोतार्ज शैली में भी लिखे जाते हैं। इसलिए इनमें निबन्ध, कथा, संस्मरण आदि कई ग्रन्थ रूपों का आनन्द एक साथ मिलता है। हिन्दी में यात्रा-साहित्य का भविष्य उज्जवल है।’’3
    वास्तव में इस विधा का अध्ययन तथा विश्लेषण, इसको और परिमार्जित करके समृद्ध होने का सुअवसर प्रदान करेगा। यही इस लेख का मूल उत्स और अभीष्ट है।

सन्दर्भः-
  1. डॉ0 तिवारी, रामचन्द्र, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, 1992 ई0, पृ0-296. 
  2. डॉ0 तिवारी, रामचन्द्र, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, 1992 ई0, पृ0-295.
  3. डॉ0 तिवारी, रामचन्द्र, हिन्दी का गद्य साहित्य, विश्वविद्यालय प्रकाशन वाराणसी, 1992 ई0, पृ0-297.
                             - शालिनी पाण्डेय
                                    प्रवक्ता, हिन्दी विभाग
                        श्रीमती जे0 देवी महिला पी0 जी0 कॉलेज
                                   बभनान, गोण्डा (उ0 प्र0)