ईसा पूर्व छठीं शताब्दी में धार्मिक आन्दोलन का उदात्त रूप हम बौद्ध धर्म की शिक्षाओं तथा सिद्धान्तों में पाते हैं जो कई शताब्दियों तक राजाश्रय पाकर भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी ख़ूब फला-फूला। अशोक एवं हर्ष के प्रयास से इस धर्म ने बाहर भी भारत की अमिट छाप छोड़ी विशेषतः दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में। सनातन वैदिक धर्म में आई विसंगतियों और कर्मकाण्ड-जनित विक्षोभ की प्रतिक्रिया स्वरूप उपजा यह धर्म आसानी से जनप्रिय होता चला गया।
पिछली शताब्दी के सांस्कृतिक जागरण का एक परिणाम था बौद्ध धर्म से सम्बन्धित ज्ञान का विकास। भारतीयों के लिए यह एक गौरव और महिमा का प्रत्यभिज्ञान था। दक्षिण, मध्य और पूर्वी एशिया के बौद्ध देशों के लिए भी विद्या और साहित्य के इस उद्धार ने नवीन परिष्कार और प्रगति को दिशा दी। टर्नर और फाउसबाल चाइल्डर्स और ओल्देनबर्ग, श्रीमान् और श्रीमती राइज डेविड्स, धर्मानन्द कोशाम्बी और बरुआ एवं अन्यान्य विद्वानों के यत्न से पालि भाषा का परिशीलन, अपने प्रकांत रूप में विकसित हुआ। बर्नूफ, मैक्समूलर, कर्न और सिल्वॉलेबी, हर प्रसाद शास्त्री और राजेन्द्र मित्र आदि के प्रयत्नों से लुप्तप्राय बौद्ध संस्कृत साहित्य का पुनरुद्धार हुआ। क्सोमा द कोरोस, शरच्चन्द दास, विद्याभूषण और पुर्से आदि ने तिब्बती भाषा, बौद्ध न्याय, सर्वास्तिवादी अभिधर्म आदि के आधुनिक ज्ञान का विस्तार किया। कनिंघम और मार्शल, स्टाइन, फ्यूशेर तथा कुमारस्वामी आदि विद्वानों ने बौद्ध पुरातत्त्व और कलावशेषों की खोज़ तथा उनके सापेक्ष काल-निर्धारण किया। नाना भाषाओं और पुरातत्त्व के गहन परिशीलन के उपरान्त शताधिक वर्षों के इस आधुनिक प्रयास ने बौद्ध धर्म की जानकारी को एक विशाल और जटिल कलेवर प्रदान किया है।
सदियों से आज तक विदेशों में अपना परचम लहराता यह धर्म धर्म-जगत की अगुवाई करता रहा है, किन्तु इसके उत्स-केन्द्र भारत में ही इसकी वर्णनातीत दयनीय दशा का कारण इसके अन्ध भक्त ही हो सकते हैं, क्योंकि आजकल भारत में यह प्रथा अधिक प्रचलित है कि सनातन धर्म के विरोध स्वरूप बौद्ध धर्म अपना लो चाहे इसके सिद्धान्तों का किंचित भी ज्ञान न हो। आज तो भारत में बौद्ध धर्मानुयायी सरकार द्वारा प्रदत्त अल्पसंख्यकों के लिए अनुदान का भी लाभ उठा रहे हैं भले ही हिन्दू रीति-रिवाजों का पालन कर रहे हों। एक हाथ में दो-दो लड्डू। यह प्रथा इस धर्म के गुणात्मक ह्रास का कारण है। फलतः वह मुक्ति का साधन न होकर विरोध का साधन ज्यादा हो गया है। वैसे तो सभी धर्म हमें उच्चतम मूल्यपरक नैतिक जीवन जीने की कला बताते हैं पर जब कोई धर्म विरोध का पर्याय बन जाय तो उसकी अधः गति सुनिश्चित है। भारत में बौद्ध धर्म की यही नियति बनी। जो दुःखद है। फाहियान, सुंगयुन, युवानच्वांग, इ-कुंग के विवरणों से बौद्ध धर्म के मध्य एशिया और भारत में क्रमिक ह्रास की सूचना मिलती है जिसकी अन्य साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पुष्टि होती है। प्रमाण है कि अनेक बौद्ध सूत्रों में सद्धर्म की अवधि 500 अथवा 1000 अथवा 1500 वर्ष बताई गयी है। कपिलवस्तु, श्रावस्ती, गया और वैशाली में इसका ह्रास गुप्त युग में ही दिखायी पड़ने लगा था। गान्धार और उड्डियान में हूणों के कारण सद्धर्म की क्षति हुई प्रतीत होती है। युवांगच्वांग ने पूर्वी दक्षिणापथ में बौद्ध धर्म को लुप्तप्राय देखा। इत्सिंग ने अपने भाषा में केवल चार सम्प्रदायों- महासांघिक, स्थविर, मूलसर्वास्तिवादी एवं सम्मतीय, को भारत में प्रचारित पाया। विहारों में हीनयानी एवं महायानी मिश्रित थे। सिन्ध में बौद्ध धर्म अरब शासन के युग में क्रमशः क्षीण और लुप्त हुआ। गान्धार और उड्डियान में बज्रयान और मन्त्रयान के प्रभाव से बौद्ध धर्म का आठवीं शताब्दी में कुछ उज्जीवन ज्ञात होता है किन्तु अल्बेरूनी के समय तक तुर्की प्रभाव से वह ज्योति लुप्त हो गयी थी। कहने में गुरेज़ नहीं कि बज्रयानी-कदाचार ही इसका प्रमुख कारण बना। कश्मीर में भी इस्लाम के प्रभुत्व की स्थापना के कारण उसका लोप मानना चाहिए। पश्चिमी एवं मध्य भारत में राजकीय उपेक्षा, ब्राह्मण तथा जैन धर्मों के प्रसार के कारण सद्धर्म का लोप प्रतीत होता है। मध्य प्रदेश में गुप्त काल से ही राजकीय पोषण के अभाव के कारण इसका क्रमिक ह्रास देखा जा सकता है। मगध और पूर्व देश में पाल नरेशों की छत्र-छाया में बौद्ध धर्म और उसके शिक्षा केन्द्र नालन्दा, विक्रमशिला, ओदन्तपुरी अपनी ख्याति के चरम शिखर पर पहुँचे परन्तु इस प्रदेश में इसके ह्रास का कारण तुर्कों का विजय अभियान हुआ।
यह स्पष्ट है कि बौद्ध धर्म के ह्रास का मुख्य कारण उसका अपने को लौकिक-सामाजिक जीवन का अनिवार्य अंग न बना पाना था। वैसे भी बौद्ध धर्म एक दर्शन है न कि जीवन जीने की आदर्श नियम संहिता, जिसको अपेक्षा थी एक विद्वत समाज की जो धर्म और दर्शन को भली-भांति समझ सके। अतः यह धर्म लोक जीवन से कटता गया। राजकीय उपेक्षा अथवा विरोध से विहारों के संकटग्रस्त होने पर उपासकों में सद्धर्म अनायास लुप्त होने लगता था। यह स्मरणीय है कि उदयनाचार्य के अनुसार ‘‘ ऐसा कोई सम्प्रदाय न था कि सांवृत्त कहकर भी वैदिक क्रियाओं के अनुष्ठान को स्वीकार न करता हो।‘‘ उपासकों के लिए बौद्ध धर्म केवल शील अथवा ऐसी भक्ति के रूप में था जिसे ब्राह्मण धर्म से मूलतः पृथक् कर सकना जनता के लिए उतना ही कठिन था जितना शून्यता तथा नैरात्मवाद के सिद्धान्तों को समझ सकना। कदाचित ही आज की बुद्धिवादिनी जनता के लिए शील, प्रज्ञा एवं समाधि का धर्म पहले की अपेक्षा अधिक उपयुक्त हो। वैसे भी जनसामान्य को सच्चा, शालीन और सहज जीवन-दर्शन चाहिए न कि गूढ़, रहस्यवादी योगतन्त्र और विज्ञानवाद।
सन्दर्भ ग्रन्थ-
- विकिपीडिया, बुद्ध और बौद्ध धर्म
- शिंसौ हानायामा: बिब्लियोग्राफी ऑन बुद्धिज्म
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- बरुआ: हिस्ट्री ऑव् प्री बुद्धिस्टिक इण्डियन फिलॉसफी.
- दत्त एवं चटर्जी: एन इण्ट्रोडक्शन टू इण्डियन फिलॉसफी.
-शालिनी पाण्डेय